महाराष्ट्र में रुझानों से महायुति की आंधी आती दिख रही है।
महाराष्ट्र में सामने आ रहे रुझानों में एनडीए की सरकार की बनती नजर आ रही है। महायुति 200 से ज्यादा सीटों पर बढ़त बनाए हुए है जबकि महाविकास अघाड़ी कहीं आसपास भी नहीं दिख रही है। महाराष्ट्र में अकेले बीजेपी ही 100 के पार पहुंचती दिख रही है।
उद्धव ठाकरे से करिश्मे की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। राज्य में फिर से मुख्यमंत्री बनने का उद्धव का सपना इस बार तो पूरा होता नहीं दिख रहा है।
रुझानों से जो तस्वीर सामने आ रही है, उसे देखकर साफ है कि उद्धव ठाकरे से एक नहीं कई गलतियां हुईं। इसी का खामियाजा महाविकास अघाड़ी को हार के रूप में देखने को मिल सकता है।
1. गठबंधन में भी तालमेल की कमी रही
महाविकास अघाड़ी में भी गठबंधन की भारी कमी दिख रही थी। कांग्रेस, शिव सेना (UBT) और एनसीपी (शरद गुट) के बीच आपसी तालमेल शुरुआत से ही देखने को कम मिला। सीटों के बंटवारे की बात हो या फिर मिलकर चुनाव प्रचार करने की बात। आम जनता में असमंजस की स्थिति बनी रही।
अंतिम क्षणों तक भी सीटों का बंटवारा फाइनल नहीं हो सकी थी। तीनों पार्टियां सीटों के बंटवारे को लेकर कई मौकों पर एकमत नहीं दिखी।
2. बड़े नेताओं को रोकने में नाकामयाब
उद्धव ठाकरे पार्टी के कई बड़े नेताओं को रोकने में भी नाकामयाब रहे। जो गुट पार्टी को जिताने में अहम भूमिका निभा सकते थे, वो एक-एक करके एकनाथ शिंदे गुट में चले गए।
3. हर पार्टी का अपना सीएम फेस
महाविकास अघाड़ी की ओर से महाराष्ट्र के सीएम के रूप में उद्धव ठाकरे अपना दावा मजबूत नहीं कर सके। मतदान के दिन तक हर पार्टी अपने-अपने सीएम की बात करती रही। गठबंधन ने संयुक्त रूप से उद्धव ठाकरे को सीएम पद का दावेदार नहीं माना।
4. उद्धव के करिश्मे पर निर्भर थी टीम
शिव सेना (UBT) से एक गलती यह भी हुई कि वह सिर्फ उद्धव के करिश्मे पर निर्भर रही। पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने आम जनता के साथ संपर्क बनाने की बहुत ज्यादा कोशिश की ही नहीं।
5. लोगों तक नहीं पहुंचा सिंबल
शिव सेना में टूट के बाद उद्धव ठाकरे को एकनाथ शिंदे के हाथों न अपनी पार्टी का नाम गंवाना पड़ा बल्कि पार्टी सिंबल भी उनके हाथ से फिसल गया।
चुनाव आयोग से उन्हें एक नया सिंबल मिला…मशाल। इसी चुनाव निशान पर उद्धव ठाकरे की पार्टी लोकसभा चुनाव में मैदान में उतरी थी।
पार्टी को मशाल का निशान मिले 2 साल हो चुके हैं, बावजूद इसके उद्धव ठाकरे इस सिंबल को आम जनता तक पहुंचाने में नाकामयाब रहे। उद्धव की पार्टी के नेताओं ने ही यह बात स्वीकार की कि दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में अभी भी लोग तीर-कमान को ही चुनाव चिह्न मान रहे थे।